वैदेही / प्रतिभा सक्सेना
लंका का सूरज अस्त हुआ, वैदेही आँसू भर रोई,
"कैसी विडम्बना हाय दैव, यह दुख समझेगा क्या कोई?
मुझको पहले मालूम न था! हा, मेरी जननी, हाय पिता,
जाना पर बहुत देर से, कुछ भी कर न सकी यह विवश सुता!
तुम जैसा गर्वोन्नत जीवन है विरल यहाँ पितु लंकेश्वर",
सीता ने साश्रु प्रणाम किया लंका की धरती पर सिर धर!
" मेरी माता जैसी नारी गुण-गरिमा का दुर्लभ संगम,
कैसा चरित्र, क्या तेज! युगों तक याद करे जिसको जन-जन!
"मैं लेती हैं संकल्प पिता, इस धरती-माँ को साक्षी कर,
तुम जैसा ही दीनतारहित होगा मेरा जीवन-संगर "!
चुपचाप स्वप्न में हो जैसे अपने में ही खोई सीता,
सुधि-हीना-सी क्या घटता है,
क्या पता समय कितना बीता!
सन्देश राम का लेकर चर आया
लंका का राज विभीषण ने पाया!
आनन्द मना राघव का यश गाओ,
देवी सीता को सादर ले आओ!
रत्नाभूषण, वस्त्रों के थाल सजा, शृंगार-प्रसाधन लिये मँजूषा में,
अनुचरियाँ परम विनीत चली आईं, सीता को उबटन-मज्जन करवाने!
वह सूनी आँखों गुमसुम सी बैठी, साहस कर अनुचरियाँ आगे आईं
जाने उदास है या प्रसन्न सीता मन के अन्दर झाँके कैसे कोई?
"हो रहा बिदा का क्यों यह आयोजन, मैं जैसी हूँ वैसी ही जाने दो!
खो गया सभी लंका में जो पाया, बस अब अपना कर्तव्य निभाने दो!"
"देवी मन्दोदरि की अँतिम इच्छा-सम्मान सहित वस्त्राभूषण धारें,
पुत्री बन आईँ थी लंकापुर मे, मर्यादा के अनुरूप बिदा पायें!
छाया हो छत्र-चँवर की मस्तक पर, जयकार गुँजा दे गगन, फूल बरसें,
पतिगृह जाये लंकापति की पुत्री, यश और नेह उस पर पग-पग सरसें!"
पुत्री जामाता को असीस दे कर, मय-तनया के थे शान्त-संयमित स्वर,
आखिरी बार था कहा विभीषण से- 'जैसे पुत्री जाती है नैहर से,
सीता वैसा ही मान यहाँ पाए, सम्मानपूर्वक बिदा करी जाए!'
खोई-सी सीता ज्यों अपने में हो, सुख-दुख से परे सिर्फ सपने में हो,
जाकर आरूढ़ हुई थी शिविका पर, भूषण सज्जित सिर धारे छत्र-चंवर,
चल रहे साथ कपि भालु और निशिचर, जयनाद गूँजता नभ में रह-रहकर!
कोई भू पर लुंठित, दुखिनी नारी, पति-पुत्र खेत रण में, वह बेचारी,
यह देख सोचती थी अपने मन में, तब रोती थी निर्जन अशोक-वन में,
अब साजे रत्नाभूषण यों निकली, इतनी जल्दी कैसे इतना बदली?
वंचित-व्याकुल नारियाँ रुदन करतीं, जीवन भर का संताप वहन करतीं!
सुख-नीड़ हमारा नष्ट किया तुमने, अब सज कर जाती हो प्रिय से मिलने,
हमको वंचित कर चाह रहीं अपना, तुमको भी हो जाए अब सुख सपना!
"लंका के ये सारे रत्नाभूषण, जाओ-जाओ तुमको देंगे दूषण!"
इतने में जय-जय राम नाद गूँजा, आकाश भर गया और न स्वर दूजा,
सीता का मस्तक कुछ डोला ऐसे, सिर हिला शाप स्वीकार लिया जैसे!
सारी हलचल से हो निर्लिप्त विलग, होता न चित्त थोडा-सा भी संयत,
साक्षात नैऋती-सी निकली पुर से, झरते थे पुष्प अटारी-अंबर से,
आई शिविका शिविरों के और निकट, उत्साह भरे थे सारे वीर सुभट!
सीता महिमामयि वस्त्रा-भूषणयुत, शिविका-आरोहित श्री-शोभा-संयुत्,
गरिमा-पूरित जैसे कोई रानी अति सहज, लगी राघव को अनजानी!
कपि भालु निनाद कर रहे-जय-जय-जय, विस्मित थे राम उमड़ आया संशय!
देखी सज्जा राजसी वस्त्र-भूषण, चुभ गए नयन में कंटक से तत्क्षण!
तापस-वेशी वे तो थे वनवासी, जीते थे समर, रहे थे एकाकी।
जैसे झटका-सा लगा अचानक ही, वैदेही दुखिनी दीन मलीन नहीं!
वह जयोन्माद या विवश क्रोध या क्या, राम के हृदय ने जाने क्या समझा-
"मेरे कारण ही शिविका पर लाए, इनसे कह दो धरती पर आ जाएँ!"
अति सहज भाव से देख राम का मुख, चुप रही जानकी हो किंचित विस्मित।
धीरे-से शिविका से उतरी सीता, उस अल्प समय में जैसे युग बीता!
"तुम गर्व न करना मेरा हेतु न तुम, अपयश न मिले मुझको थी ये ही धुन!
सब खुली दिशाएँ मन-चाही, जाओ, सीता, चाहे लंका में रह जाओ,
तुम लंका का कोई नायक चुन लो, ये लक्ष्मणादि जिसको चाहो वर लो!
कपि, भालु विभीषण, लक्ष्मण आदि सभी, विस्मित-लज्जित-से नत कर शीष सभी!
वे देख रहे थे पति की प्रभुता को, पत्नी की दीन विवश निर्भरता को!
सीता चौंकी थी देख राम का रुख, फिर मुख तमका हो उठे नेत्र दप्-दप्!
मेरे मन का सन्ताप नहीं जाना, पितु-मातु मरण का दुःख न पहचाना,
दो बोल सान्त्वना के न बोल पाये, पत्नी का गौरव भी न तोल पाये!
लंका से मैं सम्मान सहित आई, मर्यादा के अनुरूप बिदा पाई।
तुमने क्या सोचा, लंका में रहकर, आई विलास और भोगों में बहकर!
क्या जनकपुरी में सारे सुख न थे? अधिकार अयोध्या में भी क्या कम थे!
वन मुझे प्रिय लगे साथ तुम्हारा पा, मन तो वैरागी-सा हर पल भटका।
संतप्त हृदय पर जब विष-बाण चुभा, मन में सब पल भर में ही कौंध गया,
आवेग उठा फिर अंतर में ऐसा, आश्वस्ति भाव भी डूबा रहा-सहा!
वह ताप ऊर्जा बन प्रस्फुटित हुआ, स्वर्णिम तन, कुन्दन सा तमतमा गया!
उत्ताप हो उठा तन का और प्रबल, इन शब्दों से तो अग्नि अधिक शीतल!
मिथ्या अभिमान कि जीत लिया दशमुख, पर एक सहसमुख अभी यहाँ जीवित!
यदि उसे जीत लो अपने ही बल से, मत दाँव लगाओ भेद, कपट छल के,
तो मै समर्थ मानूंगी, राम, तुम्हें, अथवा कायर समझूँगी राम तुम्हें!
मणि-रत्नाभूषण ऐसे दमक उठे,ज्यों ज्वालों में अंगारे चमक उठें!
ज्वाजल्यमान था लपटों का घेरा, क्रोधाग्नि कि जलती ज्वाला का फेरा!
उत्ताप भरा जल-थल में अंबर में, दृष्टियाँ न टिकतीं कौंध भरी उर में!
मुख-दीप्ति नहीं थी विद्युत कौंधी थी, जैसे कि चतुर्दिक उल्काएं टूटीं,
उत्तप्त दिशाएं हुईं पवन दहका, भू-मण्डल का पथ जैसे कुछ बहका!
यह सीता का तन है या अग्नि शिखा या अग्नि-ज्वाल के बीच खड़ी सीता!
विभ्रमित, चकित से सारे सुभट खडे,
घटनाक्रम अब जाने किस ओर मुड़े!