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वैधव्य और वसंत / औरत होने की सज़ा / महेश सन्तोषी

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झुलसे वन सा फैला जीवन बढ़ते आकाश विवशता के।
वासंती रंग नहीं होते बंदी मन के परवशता के।

पहले तो खाली क्षितिजों में सिंदूर भरा, फिर पोंछ दिया।
फिर सूखे पत्तों का मौसम सूने वर्षों का बोझ दिया।

आगे दे दी वीरान उमर पीछे अतीत बेजान दिया।
मैं छाया की पहचान बनी परछाई का सम्मान किया।

पथ होता पैरों के आगे मैं कांटों पर चलकर आती।
सांसों की सरहद के आगे पर कोई उमर नहीं जाती।

तुम वापस आ पाते तो मैं हर ओर हवा बन कर आती।
मैं नभ तक आंचल फैलाती, हरियाली बनकर बिछ जाती।

कैसी रांगोली हाथों पर कैसी बयार, कैसी केसर।
हमने तो जलते देखा है हर मौसम में फूलों का घर।

मुरझाये बरस कई बीते अब तो मुरझे फूलों के संग।
कितने बसंत ढोना होगा यह बोझिल एकाकीपन?