वैराग्य / दिनेश्वर प्रसाद
मैंने अन्त्य परीक्षाएँ की हैं ।
मैंने फूले हुए, स्याह, काग़ज़ी, सूजे हुए
शव फाड़े हैं । समझ नहीं पाया हूँ,
कैसे जीवन को मृत्यु मान लूँ,
कैसे जीवित को मृत ।
मैंने काँच-आलमारियों में
खल्ली-आँख नरकँकालों को
देख यही समझा है —
मृत्यु से कम सत्य जीवन नहीं ।
मैंने टेबुल पर
रक्तवाहिनियों की कैंची की है ।
फेफड़े काटे और जोड़े हैं। हृदय, मस्तिष्क
चीरे हैं । इकाई के खण्डों को फिर भी
इकाई नहीं समझा ।
मुझे नहीं हुआ है नारी से वैराग्य ।
मुझे नहीं हुई है जीवन से विरक्ति ।
आसक्ति रूप की घटी है नहीं ।
प्रियतमा की जपादर्पण देह
उसके लाल अधरों पर कौंधती मुस्कान
अभी भी मुझे विद्युदित करती हैं —
मेरे क्षण-परमाणुओं में
जीव्यता के अथिर कम्प भरती हैं ।
देह की भौतिक संरचना
मुझे निर्गुनिया सन्त नहीं बना सकी ।
(30.10.64)