भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

वैराग्य 1 / शब्द प्रकाश / धरनीदास

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मातु पिता सुत मीत सबै, तब काह न दुइ दिन टेकि धरो।
जब चोट हुताशन राज हरो, धन मींजत काहेके हाथ खरो॥
अजहूँ पकरो प्रभु की शरनी, धरनी जनि धन्धहिँ बूडि मरो।
जीवन लोहतवा-जल-बुन्द गोपाल 2 कहो॥4॥