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वैराग्य 2 / शब्द प्रकाश / धरनीदास
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मौत महावत कण्ठ चढै, नहि सूझत अन्ध अभागहिं रे।
चित चेतु गँवार विकारतजो, जनि खेत चढ़े कित भागहु रे॥
जिन बुन्द-विकार सुधार कियो, तन ज्ञान दियो पगु लागहु रे।
धरनी अपने अपने पहरे उठि, जागहु जागहु जागहु रे॥5॥