शौक़ीन हूँ मैं
तुम्हारे दिए संबोधनों
वैश्या, कुल्टा और छिनाल की
तुम्हारे उद्बोधनों का
जलता कोयला रखकर जीभ पर
बजाते हुए ताली
मुस्कुराती हूँ जब खिलखिलाकर
खुल जाते हैं सारे पत्ते
तुम्हारी तहजीब के
और हो जाते हो तुम
निर्वस्त्र
बात न जीत की है न हार की
यहाँ कोई बाजी नहीं लगी
न ही शर्त है बदी
बस
तुम्हारा तमतमाता ध्वस्त चेहरा
गवाह है
तोड़ दी हैं स्त्री ने
तुम्हारी बनायी कुंठित मीनारें
तुम्हारी छटपटाहट
बिलौटे सी जब हुंकारती है
स्त्री हो जाती है आज़ाद
और उठाकर रख देती है एक पाँव
आसमा के सीने पर
छोड़ने को छाप इस बार
बनकर बामन नापने को तीनों लोक
कि
फिर न हो सके
किसी भी युग में
किसी भी काल में
स्त्री फिर से बेबस, मूक, निरीह
अंत में
सोचती हूँ बता ही दूँ
तुम्हें एक सत्य
कि
तुम्हारे दिए उद्बोधन ही बने हैं नींव
मेरी स्वतंत्रता के