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वैश्य जो न्याय-धर्म-सम्पन्न / हनुमानप्रसाद पोद्दार

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(राग वसन्त-ताल कहरवा)
 
वैश्य जो न्याय-धर्म-सपन्न। प्रचुर उपजाता कृञ्षिसे अन्न॥
पालता पशु, उपजाता अर्थ। कभी करता न प्रमाद-‌अनर्थ॥
सदा करता विशुद्ध व्यापार। सत्यका करता नित सत्कार॥
न लेता पर-धन कभी अशुद्ध। बही-खाता रखता सब शुद्ध॥
छोड़ता कभी नहीं ईमान। विप्र-गो-हित करता नित दान॥
अर्थपर मान न निज अधिकार। बाँटता बनकर सदा उदार॥
छिपाकर नहीं लाभका अंश। राज्यको देता कर दशमांश॥
राज्य भी करता उसका मान। लूटता कभी न बन बेभान॥
चतुर, श्रमशील, कर्ममें दक्ष। लाभ करता पद अर्थाध्यक्ष॥
देव-‌आराधन, प्रभुकी भक्ति। सदा करता जितनी है शक्ति॥