वैष्णो बाला / मनोज श्रीवास्तव
    वैष्णो बाला      
 
इसी उत्तल-उत्तुन्ग 
दुर्भेद्य अपमार्ग से 
गयी थी एक बाला,
जिसके क्रोध ने 
बना दिया था देवी उसे 
 
कैसे बचाया होगा
उसने स्वयं को?
हां, बचाया था
स्वयं को 
और इस सुकुमारी 
वनविहारिणी सुन्दरी को भी--
शील-भंग होने से,
चढ़ते हुए उन नुकीले शिखरों पर 
जिन पर पिपीलिकाओं तक के 
          पाँव फिसल जाते हैं,
ब्यालों से बचकर छिपते हुए 
उन गुह्य कंदराओं में 
जिनमें घुसते हुए 
केंचुए तक की कमर टूट जाती है
आखिरकार, प्रतिशोध ने 
विवश कर दिया होगा उसे
अपूर्व बल अर्जित करने के लिए,
तब उसने सम्पूर्ण स्त्री-बल से 
कलम कर दिया होगा--
अहंकार का सिर,
निष्ठुर पौरुष के खिलाफ 
छेड़ा था संग्राम जो उसने,
उसकी विजय-परिणति हुई थी यहीं,
यहीं उसने कामांधता को रौंद 
बजाया था विगुलनाद 
जब कभी निरीहता 
असमर्थता की कैद से मुक्त हुई होगी,
एक तीर्थ-स्थल बना होगा वहां
और ताकत की तलाश में निरीहजन 
आखिरकार
पहुंचे होंगे यहीं--
मनस्वी निष्ठा से 
इस बाला को पूजने,
आत्मबल अर्जित करने का जिसने 
जीवंत संदेश पहुंचाया कोने-कोने.
                                (जम्मू; अनुमानित रचना-काल: जुलाई, १९९८)
 
	
	

