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वैसे तो घर के लोग बहुत सावधान थे / शैलेश ज़ैदी
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वैसे तो घर के लोग बहुत सावधान थे।
फिर भी जगह-जगह पे लहू के निशान थे॥
वह कोठियाँ बनी हैं जहाँ इक क़तार में।
पहले उसी जगह पे हमारे मकान थे॥
जिनके घरों को आग लगा दी गयी थी रात।
इस देच्च का दरअस्ल वही संविधान थे॥
स्वाधीनता की मांग में जो रक्त भर गये।
हिम्मत थी उनके पास दिल उनके जवान थे॥
चुप-चाप यातनाएँ सहन कर गये तमाम ।
शायद यहाँ के लोग बहुत बेज़ुबान थे ॥
करते थे आये दिन मेरी खुलकर बुराइयाँ।
मेरी तरफ़ से आप बहुत बदगुमान थे ॥
मन की कोई गुफा भी अजन्ता न बन सकी।
पहले के चित्रकार बहुत ही महान थे॥