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वो, फिर कभी नहीं लौटा / महेश कुमार केशरी

सालों पहले, एक
आदमी, हमारे भीतर
से निकला और,
फिर, कभी नहीं लौटा

सुना है, वह कहीं शहर, में
जाकर खो गया

वो, घर, की जरुरतों
को निपटाने
निकला था
निपटाते-निपटाते
वो पहले तारीख, बना
फिर कैलेंडर और फिर, एक
मशीन बनकर रह गया

और, जब मशीन बना तो
बहुत ही असंवेदनशील और,
चिड़चिड़ा, हो गया

हमेशा, हँसता-खिलखिलाता
रहने वाला, वाला आदमी
फिर, कभी नहीं मुस्कुराया

और, हमेशा, बेवजह
शोर, करने लगा
मशीन की तरह

अब, वह चीजों को केवल
छू-भर सकता था
उसने चीजों को महसूसना
बंद कर दिया था

उसके पास, पैसा था
और, भूख भी
लेकिन, खाने के लिए
समय नहीं था

उसके, पास, फल था
लेकिन, उसमें मिठास
नहीं थी

उसके पास, फूल, थें
लेकिन, उसमें खूशबू
नहीं थी

उसकी ग्रँथियाँ, काम के बोझ
से सूख गई थीं

प्रेम, उसके लिए,
सबसे बडा़
बनावटी शब्द बनकर
रह गया

वो, पैसे, बहुत कमा रहा
था
लेकिन, खुश
नहीं था

या, यों कहलें की
वो पैसे, से

खुशियाँ, खरीदना
चाह रहा था

बहुत दिन हुए
उसे, अपने आप से बातें
किये

शीशे, को देखकर
इत्मिनान
से कंघी किये

या, चौक पर बैठकर
घंटों अखबार पढ़े और
चाय, पिये हुए

या, गाँव जाकर, महीनों
समय बिताये

पहले वह आदमी गाँव
के तालाब, में मछलियाँ
पकड़ता था

सँगी-साथियों के साथ
घंटों बतकही करता था

पहले, उसे बतकही करते
हुए और
मछली पकड़ते
हुए बडा़ आनंद आता
था!

लेकिन, अब, ये, सब, उसे
बकवास के सिवा
कुछ नहीं लगता

फिर, वो, आदमी दवाईयों
पर, जिंदा रहने लगा

आखिर,
कब और कैसे बदल
गया हमारे भीतर का वह
आदमी?

कभी कोई, शहर जाना
तो शहर से उस आदमी के
बारे में जरूर पूछना!