भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
वो अपनी मुफ़लिसी जब भी छुपाने लगता है / बिरजीस राशिद आरफ़ी
Kavita Kosh से
वो अपनी मुफ़लिसी जब भी छुपाने लगता है
तो बाप-दादा के क़िस्से सुनाने लगता है
किसी ग़रीब पे हँसने की पा रहा है सज़ा
उसे हँसाओ तो आंसू बहाने लगता है
इन आँधियों से चलो थोड़ी दोस्ती कर लें
चिराग़ घर का कभी घर जलाने लगता है
वो क़िस्सागोई के फ़न मे है इस क़दर माहिर
ख़ुद हँसता रहता है सबको रुलाने लगता है
हर इक ख़ुशी को वो कहता है बस ख़ुदा का करम
हर एक ग़म को मुक़द्दर बताने लगता है
वो लुट चुका है बचा है ये जिस्म का साया
उसे भी शाम को पीछे छुपाने लगता है
हमारे दौर का ये शाहजहान है ’राशिद’
घरौंदे रेत के अक्सर बनाने लगता है