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वो आसमाँ मिज़ाज कहां आसमाँ से था / ‘अना’ क़ासमी
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वो आस्माँ मिज़ाज कहां आस्माँ से था
उसका वजूद भी तो इसी ख़ाकदाँ से था
उसके हर एक ज़ुल्म को कहता था अ़द्ल मैं
साया मिरे भी सर पे उसी सायबाँ से था
इक साहिरा ने मोम से पत्थर किया जिसे
वो क़िस्स-ए-लतीफ़ मिरी दास्ताँ से था
गरदान4 कर मैं आया हूँ मीज़ाने-फ़ायलात
अबके हमारा सामना उस नुक्तादाँ से था
ये मुफ़लिसी की आँच में झुलसी हुई ग़ज़ल
रिश्ता ये किस ग़रीब का उर्दू ज़बाँ से था