वो इंसां जिससे दानिस्ता कोई गलती नहीं होती / कृपाशंकर श्रीवास्तव 'विश्वास'
वो इंसां जिससे दानिस्ता कोई गलती नहीं होती
नज़र उस पर फ़रिश्ते की कभी तिरछी नहीं होती।
सवेरे की किरन ने जब भी पूछा, कह नहीं पाए
हमारे साथ अब कोई ज़बरदस्ती नहीं चलती।
ये हमने मां से सीखा था मियां ख़ैरात करने से
नज़र ज़र को नहीं लगती रक़म मैली नहीं होती।
भले तनक़ीद कड़वी हो मगर तुम सोचना बेहतर
यक़ीनन फायदे वाली दवा मीठी नहीं होती।
किसी की उम्र पर नुक्ता बहुत कुछ सोच कर रखिये
अमूमन यौमे-पैदाइश लिखी सच्ची नहीं होती।
तुम्हारी बाद हाँ के, 'ना' किसी का तोड़ देगी दिल
कहेंगे हम इसे धोखा ये लत अच्छी नहीं होती।
बुढापा दे रहा दस्तक नज़र देने लगी थोखा
जब उठता हूँ तो कुछ पल तक कमर सीधी नहीं होती
तुम्हें कैसे खिलाएं खीर कुल के देवता बोलो?
हमारे गांव में अब धान की खेती नहीं होती।
दग़ा अपनों से ऐ 'विश्वास' गंगा की क़सम खाकर
समझते हम थे अब तक ये क़सम झूठी नहीं होती।