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वो एकता थी कि थोड़ा बहुत तज़ाद भी था / ‘अना’ क़ासमी

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वो एकता थी कि थोड़ा बहुत तज़ाद <ref>मनमुटाव </ref>भी था
थीं रंजिशें भी मगर हममें इत्तहाद <ref> एकता </ref>भी था

अजीब शख़्स था, के खुद को जीतने के लिए
वो जंग हार के लौटा था और शाद <ref>खुश</ref>भी था

मुहब्बतों में कोई ज़ाब्ते नहीं चलते
मैं सच कहूं तो तबीयत में कुछ इनाद <ref>दुश्मनी</ref>भी था

कभी तो हंस पड़ी उस पर मुनाफ़क़द <ref>दिल में कुछ बाहर कुछ </ref>उसकी
शिकायतें भी ज़बां पर थीं, बामुराद भी था

उठो कि मंज़िले-मक़सूद को भी बांट ही लें
तिरा दिमाग़ था, कुछ मेरा इजतिहाद <ref>सोच बिचार</ref>भी था

पड़ा जो वक़्त तो किस किस की की जबींसाई<ref>माथा टेकना</ref>
गो कलमा गो<ref>एक खुदा को मानने वाला</ref> था, मेरा उसपे ऐतमाद भी था

मैं फिर भी काली पहाड़ी पे मुंतज़िर था तेरा
सियाह रात थी और साथ अब्रो-बाद <ref>आंधी तूफ़ान</ref>भी था

ये उन दिनों की ग़ज़ल है कि जिन दिनों में ‘अना’
उसे भुला भी रहा था वो उसको याद भी था

शब्दार्थ
<references/>