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वो एक ख़्वाब कि आँखो में जगमगा रहा है / शहबाज़ ख्वाज़ा

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वो एक ख़्वाब कि आँखो में जगमगा रहा है
चराग़ बन के मुझे रौशनी दिखा रहा है

वो सिर्फ हक़ जो मिरे लब से आश्कार हुआ
सुकूत-ए-दैर में इक उम्र गूँजता रहा है

मिरे सुख़न में जो इक लौ सी थरथराती है
चराग़-ए-शब से मिरा भी मुकामिला रहा है

मिरे मिए ये ख़द-आ-ख़ाल की हक़ीक़त क्या
वो ख़ाक हूँ कि जिसे चाक फिर बूला रहा है

मैं सोचता हूँ कोई दश्त क्या समेटेगा
वो वहशतें हैं मुझे ख़ुद भी ख़ौफ आ रहा है

सुख़न के आईना-ख़ाने को ख़ैर हो ‘शहबाज’
ज़माना संग-ब-कफ़ है इधर को आ रहा है