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वो ऐसा चाहता दर्द को साथी बनायें हम / ज़ाहिद अबरोल



वो ऐसा चाहता था दर्द को साथी बनायें हम
बिना आवाज़ के अंदर कहीं से टूट जायें हम

दरख़्त-ए-याद-ए-माज़ी से, पका फल टूटना चाहे
हज़ारों हादिसे होंगे, किसी को क्या बतायें हम

जो देखें तो वो दरिया है, जो सोचें तो वो सहरा है
न उससे दूर रह पायें, न उसके पास जायें हम

न मेरे पास कश्ती है न तेरे पास साहिल है
फिर इस जीने की कोशिश को समुन्दर क्यूं बनायें हम

खुलेगा बादबां पलकों का तो वो नाव सी आंखें
हमें ढूंढेंगी, साहिल से ही क्यूं अब लौट जायें हम

हमें जब भी हो “ज़ाहिद” नींद की बारिश का अंदेशः
उमस दिल की खुली छत पर भी साथ अपने सुलायें हम

शब्दार्थ
<references/>