वो क्या गए पयाम-ए-सफ़र दे गए / अलीम 'अख्तर'
वो क्या गए पयाम-ए-सफ़र दे गए मुझे
इक जज़्बा-ए-जुनून-ए-असर दे गए मुझे
हर सम्त देखती है जो उन के जमाल को
वो इक निगाह-ए-जलवा-नगर दे गए मुझे
हर-चंद कर्ब-ए-मर्ग है महसूस हर-नफ़स
लुत्फ़-ए-हयात-ए-इश्क़ मगर दे गए मुझे
तस्वीर-ए-हुज़्न-ओ-यास बना कर चले गए
लब-हा-ए-ख़ुश्क ओ दीदा-ए-तर दे गए मुझे
बेदार कर गए सहर-ओ-शाम-ए-ज़िंदगी
आह-ओ-फ़ुग़ान-ए-शाम-ओ-सहर दे गए मुझे
जमती नहीं निगाह किसी चीज़ पर भी अब
इक ख़ीरगी-ए-ताब-ए-नज़र दे गए मुझे
अर्ज़-ए-हदीस-ए-शौक़ पे शरमा के रह गए
कितना हसीं जवाब मगर दे गए मुझे
मेरे सुकून-ए-क़ल्ब को ले कर चले गए
और इज़्तिराब-ए-दर्द-ए-जिगर दे गए मुझे
महरूम-ए-शश-जहात निगाहों को कर गए
बस इक निगाह-ए-जानिब-ए-दर दे गए मुझे
'अख़्तर' वो आए और चले भी गए मगर
इक लुत्फ़-ए-इज़्तिराब-ए-असर दे गए मुझे