वो ख़ानमाँ-ख़राब न क्यूँ दर-ब-दर फिरे / 'फना' निज़ामी कानपुरी
वो ख़ानमाँ-ख़राब न क्यूँ दर-ब-दर फिरे
जिस से तेरी निगाह मिले या नज़र फिरे
राह-ए-जुनूँ में यूँ तो लाखों ही सर-फिरे
या रब मेरी तरह न कोई उम्र भीर फिरे
रफ़्तार-ए-यार का अगर अंदाज़ भूल जाए
गुलशन में ख़ाक उड़ाती नसीम-ए-सहर फिरे
साक़ी को भी सिखाते हैं आदाब-ए-मै-कशी
मिलते हैं मै-कदे में कुछ ऐसे भी सर-फिरे
तर्क-ए-वतन के बाद की कद्र-ए-वतन हुई
बरसों मेरी निगाह में दीवार ओ दर फिरे
रह जाए चाँद रोज़ जो बीमार-ए-ग़म के पास
ख़ुद अपना दिल दबाए हुए चारा-गर फिरे
मैं अपना रक़्स-ए-जाम तुझे भी दिखाऊँगा
ऐ गर्दिश-ए-ज़माना मेरे दिन अगर फिरे
मेरी निगाह में तो ग़ज़ल है उसी का नाम
जिस की रगों में दौड़ता ख़ून-ए-जिगर फिरे
क़ैद-ए-ग़म-ए-हयात भी क्या चीज़ है ‘फना’
राह-ए-फ़रार मिल न सकी उम्र भर फिरे