वो ख़ुश-सुख़न तो किसी पैरवी से ख़ुश न हुआ / रऊफ़ खैर
वो ख़ुश-सुख़न तो किसी पैरवी से ख़ुश न हुआ
मिज़ाज-ए-लखनवी-ओ-देहलवी से ख़ुश न हुआ
मलाल ये है कि आख़िर बिछड़ गया मुझ से
वो हम-सफर जो मिरी ख़ुश-रवी से ख़ुश न हुआ
तुझे ख़बर भी है क्या क्या ख़याल आता है
कि जी तिरे सुख़न मुल्तवी से ख़ुश हुआ
फ़कीर शाह नहीं शाह-साज़ होता है
ये ख़ुश-नज़र निगाह-ए-ख़ुसरवी से ख़ुश न हुआ
सजे हुए हैं अभी दिल में ख़्वाहिशात के बुत
ये सोमनात कभी ग़जनवी से ख़ुश न हुआ
वो आदमी है जो आब-ए-हयात का प्यासा
शराब-ए-ईस्वी-ए-ओ-मूसवी से ख़ुश न हुआ
वो कम सुख़न तो मिरा दुष्मन-ए-सुख़न निकला
ग़ज़ल से ख़ुश न हुआ मसनवी से ख़ुश न हुआ
उसी को आया सर आँखों पे बैठने का हुनर
जो अपनी हैसियत-ए-सानवी से ख़ुश न हुआ
रऊफ ‘ख़ैर’ भला तुम से कैसे ख़ुश होगा
वो मौलवी जो किसी मौलवी से ख़ुश न हुआ