वो गुड़ सी बात करता है, निभाना भूल जाता है
वो गुड़ सी बात करता है, निभाना भूल जाता है
दिनों के फेर से खुद को, बिताना भूल जाता है
कभी मिलता है खोया सा, कभी टूटा सा गलियों में
कभी पूछो तो शायर है, बताना भूल जाता है
ज़माने भर की रौनक को, बहा कर अश्क़ में अपने
जगा रक्खा है आँखों को, सुलाना भूल जाता है
बचा रखता है दामन को, हवाओं की शरारत से
मगर वो दौलत-ए-दिल को, बचाना भूल जाता है
बहुत उस्ताद शायर है, जो हर्फ़ों को सजाकर के
खुदी के ज़ख्म पर मरहम, लगाना भूल जाता है
गुले गुलज़ार कहते है सभी उस दिल की दौलत को
दबा रहता है कर्ज़ों में चुकाना भूल जाता है
हसीं दुनिया बसा रक्खी है उसने दिल के भीतर ही
नज़र बस शोख उसकी, मुसकराना भूल जाता है
यूँ जिस्मों की कशिश रखना, ग़लतफ़हमी है चाहत की
रुहानी ही ये जज़्बा है सिखाना भूल जाता है
जुदा रखता है वो सबसे खुदाई में, बेनामी में
फकत इस सूफियापन को ज़माना भूल जाता है