भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
वो गुलदस्तों में अशआर लगाता है / मुज़फ़्फ़र हनफ़ी
Kavita Kosh से
वो गुलदस्तों में अशआर लगाता है
और यहाँ लहजे पर धार लगाता है
ग़रक़ाबौं नैं देखा दरया का इन्साफ
ज़िंदा मुर्दा सब को पार लगाता है
कौन ज़माने को समझाए चलने दो
चलने वाले ही को आर लगाता है
कहलाते हैं दुनिया भर में ज़ले अल्लाह
झाता उन पर खिदमत गार लगता है
खुश्बू क़ैद नहीं रहै सकती गुलशन में
देखें वो कितनी दीवार लगाता है
माज़ी से ता हाल मुज़फ्फर ज़ालिम ही
ताज पहनता है दरबार लगाता है