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वो ज़ालिम तो नहीं पर सोचना था / कांतिमोहन 'सोज़'
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वो ज़ालिम तो नहीं पर सोचना था ।
किसी उम्मीद पर मैं जी रहा था ।।
वो ख़त हरगिज़ नहीं मेरे लिए था
लिफ़ाफ़े पर मगर मेरा पता था ।
दिए दोनों जहाँ उसका करम है
मगर मैं और ही कुछ चाहता था ।
जनूं ने लाज रख ली आशिक़ी की
वगरना नाम लब तक आ चुका था ।
वहाँ पर कौन था मेरे अलावा
मैं ख़ुद मंज़र था ख़ुद ही देखता था ।
कमां थी और न तीरन्दाज़ कोई
फ़क़त एक तीर था था जो बेख़ता था ।
हज़ारों नाम थे बेहोशियों के
मैं जब-जब होश में था लापता था ।।
17 फ़रवरी 2015