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वो जाने कितना सर-ए-बज़्म शर्म-सार हुआ / 'फना' निज़ामी कानपुरी

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वो जाने कितना सर-ए-बज़्म शर्म-सार हुआ
सुना के अपनी ग़ज़ल मैं क़ुसूर-वार हुआ

हज़ार बार वो गुज़रा है बे-नियाज़ाना
न जाने क्यूँ मुझे अब के ही ना-गवार हुआ

हज़ारों हाथ मेरी सम्त एक साथ उठे
मगर मैं एक ही पत्थर में संग-सार हुआ

मैं तेरी याद में गुम था की खा गया ठोकर
ये हादसा मेरी राहों में बार बार हुआ