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वो जुदा हो के रह न पाया है / सतीश शुक्ला 'रक़ीब'

वो जुदा हो के रह न पाया है
रूठकर खुद मुझे मनाया है

ज़िंदगी धूप में कटी यारो
बस घड़ी दो घड़ी का साया है

सोचिये, बेशुमार मालो-ज़र
पास उसके कहाँ से आया है

हाँ ! ग़ज़ल से है प्यार उसको भी
मुद्दतों बाद ये बताया है

चारसू दिख रहा है अपनापन
कौन है, जो यहां पराया है

बाग़ के बेहतरीन फूलों से
आज गुलदान को सजाया है

रात, सपने में कह गया कोई
छोड़ दे सब 'रक़ीब' माया है