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वो जो इक शर्त थी वहशत की / इरफ़ान सिद्दीकी

वो जो इक शर्त थी वहशत की, उठा दी गई क्या
मेरी बस्ती किसी सेहरा में बसा दी गई क्या

वही लहजा है मगर यार तेरे लफ़्ज़ों में
पहले इक आग सी जलती थी, बुझा दी गई क्या

जो बढ़ी थी कि कहीं मुझको बहा कर ले जाए
मैं यहीं हूँ तो वही मौज बहा दी गई क्या

पाँव में ख़ाक की ज़ंजीर भली लगने लगी
फिर मेरी क़ैद की मीआद बढ़ा दी गई क्या

देर से पहुंचे हैं हम दूर से आये हुए लोग
शहर खामोश है, सब ख़ाक उड़ा दी गई क्या