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वो जो उम्र थी यूँ ही ढल गई / देवी नांगरानी

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वो जो उम्र थी यूँ ही ढल गई
वो तो रेत जैसी फिसल गई

जो थी बंद तन के मकान में
मेरी जान कैसे निकल गई

वो तो तीरगी की ही कोख में
ये जो रौशनी थी वो पल गई

करो शुक्रिया क्यों न मौत का
कि जो डर के ज़ीस्त संभल गई

रही सुबह आस की ताज़गी
उड़ी ख़ुशबू शाम जो ढल गई

मेरी सोच में वो निखार था
मेरी ज़िन्दगी ही बदल गई

था असर ग़ुरूर में आग-सा
मेरी ख़ाकसारी ही जल गई.