भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
वो जो नज़रें फेरकर जाने लगा है / दरवेश भारती
Kavita Kosh से
वो जो नज़रें फेरकर जाने लगा है
और ज़्यादा ज़ेह्न पर छाने लगा है
धूप जिसने की अता, अब हम पे वो ही
साये की मानिन्द लहराने लगा है
आज तक जो बाप से सुनता रहा था
बाप को बेटा वो समझाने लगा है
जिसकी फ़ित्रत थी हमेशा काँटे बोना
लो, वही राहों को महकाने लगा है
खूब वाक़िफ़ हैं हम उसकी हरकतों से
साफ़गोई से जो पेश आने लगा है
है अजब ये, पहले देकर ज़ख़्म गहरे
प्यार से अब उनको सहलाने लगा है
था अभी ख़ामोश दहशत से जो 'दरवेश'
पा के हमदर्दी वो मुस्काने लगा है