वो जो रामसजीवन था / यश मालवीय
वो जो रामसजीवन था
खुशियों वाला ऑंगन था
फूलों सा उसका मन था
सबका जिया जुड़ावन था
जेठ दुपहरी सावन था
सचमुच ही मनभावन था
उस पर इक दिन कहर हुआ
शाम हुआ, दोपहर हुआ
खून का प्यासा देखो तो
उसका अपना शहर हुआ
पास फटा इक हथगोला
धरती आसमान डोला
चिथड़ों में तब्दील हुआ
उगता सा सूरज भोला
उसका बेटा ढेर हुआ
क्रूर समय का फेर हुआ
लाश हो गई घर वाली
अब क्या होली दीवाली
राम रहीम जूझ बैठे
खांर से अकड़े-ऐंठे
ख्वाब हो गए नूर मियाँ
हुए जिगर से दूर मियाँ
सुख में दुख में साथी थे
अब हैं चकनाचूर मियाँ
रामसजीवन बदल गया
करने लगे फितूर मियाँ
भरी जवानी टूट गया
प्याले जैसा फूट गया
किससे बात करे दिल की
अपने से ही रूठ गया
अब तो बहुत अकेला है
पड़ा सड़क पर ढेला है
वर्तमान की छाती पर
बस यादों का मेला है
अब जो रामसजीवन है
खाली खाली बर्तन है
टूटा टूटा दरपन है
मातम वाला आँगन है
पानी के बाहर जैसे
मछली वाली तड़पन है
रामसजीवन पहले का
मिले कभी जो तुम्हें कहीं
उसको घर पहुंचा देना
मेरी खोज खबर देना
तुमको जो लिखता आया
कहना तुमको ढूंढ रहा
कभी यहां तो कभी वहां
सारे जहां से अच्छा था
कहां गया वो हिंदोस्ताँ
रामसजीवन लौटो तो
एक बार फिर कविता में
अपनी खोई दुनिया में
कवि को नींद न आती है
बस तबियत घबराती है
रामसजीवन, नूरमियाँ
इस रस्ते उस रस्ते से
आ जाओ चौरस्ते पर
लौटो चाय-नमस्ते पर
चौराहे पर देश खड़ा
गली गली अजगर लहरे
ज़ख्म दे रहा है गहरे
उसका फन मिलकर कुचलो
फिर से सूरज सा उछलो
अपनी सुबह निकल आए
काली रात दहल जाए
बंदूकें सब सो जाएं
हाथ न आएं, खो जाएं
मन से मन का तार जुड़े
तबला और सितार जुड़े
चेहरों से आतंक धुले
कोई खुशबू नई घुले
रामसजीवन पहले सा
फूलों जैसा खिले खुले
फिर से आएं नूर मियाँ
कितना अच्छा लगता था
बजते थे संतूर मियाँ
देखो ज्यादा देर न हो
और अधिक अंधेर न हो
रामसजीवन पहल करो
परछाई से नहीं डरो
बंद पड़ी खिड़की खोलो
और हवाओं के हो लो
बातचीत फिर शुरू करो
मरने से इतने पहले
क्यों आखिर इस तरह मरो?