वो जो रिस रहा है दर्द का टुकड़ा / रेणु हुसैन
मैं इस आग को बुझने ना दूँ
या इसे बुझने से पहले
वो जो रिस रहा है दर्द का टुकड़ा
बहुत अँदर,
जो दिमाग तक पहुँच जाता है
एक ख़याल बनकर,
मुझे सोने नहीं देता
जो आँखों की नमी के नीचे
आँसू की शक्ल लेना चाहता
इन पहाड़ों के बीच कृत्रिम झील के किनारे
ठंडी सर्द हवाओं में भी
जिला रहा है, सता रहा है
किनारों के गीले पत्थरों से टकराकर
लौट-लौट रहा है लहरों की तरह
एकांत अलग-थलग पड़े तन्हा समंदर में।
मैं भी लौट रही हूँ
या लौटा दी गई हूँ
जंगली हवाओं की तरह
पेड़ों-पहाड़ों से टकराती,
सूने मंदिर में नाद करती
अपने देवता की मूरत को फिर से ज़िन्दा करती
पागलों की तरह बेतहाशा बेमानी हँसी हँसती
इस दर्द का क्या करूँ?
जो कभी मुहब्बत बनकर पिघल रहा है
और कभी विद्रोही की ज्वाला-सा लाल हो रहा है
उस दर्द को
धुएँ में उड़ा दूँ
आँखों से बहा दूँ
या होठों पे सजा लूँ
इस पुरानी पड़ चुकी आग को
बुझने से पहले
कुछ और जला दूँ...!!
ता-ज़िन्दगी जलने के लिए ।