Last modified on 17 अगस्त 2013, at 20:02

वो झंकार पैदा है तार-ए-नफ़स में / शेर सिंह नाज़ 'देहलवी'

वो झंकार पैदा है तार-ए-नफ़स में
कि है नग़मा नग़मा मिरी दस्तरस में

तसव्वुर बहारों में डूबा हुआ है
चमन का मज़ा मिल रहा है क़फ़स में

गुलों में ये सरगोशियाँ किस लिए हैं
अभी और रहना पड़ेगा क़फ़स में

न जीना है जीना न मरना है मरना
निराली हैं सब से मोहब्बत की रस्में

न देखी कभी हम ने गुलशन की सूरत
तरसते रहे ज़िंदगी भर क़फ़स में

कहो ख़्वाह कुछ भी मगर सच तो ये है
जो होते हैं झूठे वो खाते हैं क़समें

मैं होने को यूँ तो रिहा हो गया हूँ
मिरी रूह अब तक है लेकिन क़फ़स में

न गिरता मैं ऐ ‘नाज़’ उन की नज़र से
दिल अपना ये कम-बख़्त होता जो बस में