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वो तबस्सुम-रेज़ भी हैं और तग़ाफ़ुल केश भी / रमेश तन्हा

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वो तबस्सुम-रेज़ भी हैं और तग़ाफ़ुल केश भी
ज़िन्दगी की धूप में हैं मौत की परछाइयां

उनके तेवर देख कर अफसुर्दा-ख़ातिर है खुशी
ये तबस्सुम-रेज़ भी है और तग़ाफ़ुल केश भी
कोई बतलाए है ये चाहत की मंज़िल कौन सी

क्यों धुएं की ओट की मुश्ताक़ हैं रानाइयां

वो तबस्सुम-रेज़ भी हैं और तग़ाफ़ुल केश भी
ज़िन्दगी की धूप में हैं मौत की परछाइयां।