वो तसव्वुर में रहे पेशे-नज़र फ़ुर्क़त की रात / रतन पंडोरवी
वो तसव्वुर में रहे पेशे-नज़र फ़ुर्क़त की रात
दीदनी है जोशे-उल्फ़त का असर फ़ुर्क़त की रात
याद बन कर दिल में बैठा हैं गो वो दिलरुबा
रात फ़ुर्क़त की है इस पर भी मगर फ़ुर्क़त की रात
रोते-रोते सो गई हर शमअ परवानों के साथ
होते होते हो गई आख़िर सहर फ़ुर्क़त की रात
हर तरफ तारीकियां, खामोशियाँ, तन्हाईयाँ
हू का आलम बन गया है घर का घर फ़ुर्क़त की रात
आह उस किस्मत के मारे को कहां तक रोइये
जिस की किस्मत में नहीं लिक्खी सहर फ़ुर्क़त की रात
मौत को भी मौत आती है यहां आते हुए
ज़िन्दगी को ज़िन्दगी का क्या ख़तर फ़ुर्क़त की रात
और तो क्या ज़िन्दगी भी दे गई आखिर जवाब
हो सका कोई न मेरा हम-सफ़र फ़ुर्क़त की रात
ग़म गुसारी के लिए आवाज़ दूँ किस को 'रतन'
मर गया मेरे लिए मुर्गे-सहर फ़ुर्क़त की रात ।