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वो तो दिल में मिरे समाए हैं / जावेद क़मर
Kavita Kosh से
वो तो दिल में मिरे समाए हैं।
कैसे कह दूँ कि वह पराए हैं।
रौनक़-ए-बज़्म बढ़ गई है और।
आप तशरीफ़ जब से लाए हैं।
मुस्कुराने दो ग़म के मारों।
मुद्दतों बाद मुस्कुराए हैं।
कोई क़िस्सा मसर्रतों का सुना।
ग़म के क़िस्से सुने सुनाए हैं।
सूरजों को बुझाओ तो मानूँ।
तुम ने लाखों दिये बुझाए हैं।
क्यों करे एतबार अपनों का।
जिस ने अपनों से ज़ख़्म खाए हैं।
उन की ता'बीर चाहता हूँ' क़मर'।
ख़्वाब मैंने भी कुछ सजाए हैं।