भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

वो दिल भी जलाते हैं रख देते हैं मरहम भी / 'शमीम' करहानी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

वो दिल भी जलाते हैं रख देते हैं मरहम भी
क्या तुर्फ़ा तबीअत है शोला भी हैं शबनम भी

ख़ामोश न था दिल भी ख़्वाबीदा न थे हम भी
तन्हा तो नहीं गुज़रा तन्हाई का आलम भी

छलका है कहीं शीशा ढलका है कहीं आँसू
गुलशन की हवाओं में नग़मा भी है मातम भी

हर दिल को लुभाता है ग़म तेरी मोहब्बत का
तेरी ही तरह ज़ालिम दिल-कश है तिरा ग़म भी

इंकार-ए-मोहब्बत को तौहीन समझते हैं
इज़हार-ए-मोहब्बत पर हो जाते हैं बरहम भी

तुम रूक के नहीं मिलते हम झुक के नहीं मिलते
मालूम ये होता है कुछ तुम भी हो कुछ हम भी

पाई न ‘शमीम’ अपने साक़ी की नज़र यकसाँ
हर आन बदलता है मय-ख़ाने का मौसम भी