वो दिल ही क्या धड़के न कभी
जो साज़ को सरगम दे न कभी
वो आँख ही क्या जो रो न सके
गुलशन दिल का सींचे न कभी
हम लाख ग़मों से खेले हैं
ख़ुशियों से मगर खेले न कभी
वो सोच अधूरी कैसे सजे
लफ्ज़ों का लिबास ओढ़े न कभी
हम खेल रहे हैं किनारों पर
गहरे दिल में डूबे न कभी
तारों से सजी महफि़ल ‘देवी’
बिन चाँद के वो भाये न कभी