वो देखते जाते हैं कन अँखियों से इधर भी / 'बेख़ुद' देहलवी
वो देखते जाते हैं कन अँखियों से इधर भी
चलता हुआ जादू है मोहब्बत की नज़र भी
उठने की नहीं देखिए शमशीर-ए-नज़र भी
पहले ही लचकती है कलाई भी कमर भी
फूटें मेरी आँखें जो कुछ आता हो नज़र भी
दुनिया से अलग चीज़ है फ़ुर्कत की सहर भी
साक़ी कभी मिल जाए मोहब्बत का समर भी
इन आँखों का सदक़ा कोई साग़र तो इधर भी
बे-ताब हूँ क्या चीज़ चुरा ली है नज़र ने
होने को तो दिल भी है मेरे पास जिगर भी
घर समझा हूँ जिस को कहीं तुर्बत तो नहीं है
आती हैं यहाँ शाम की सूरत में सहर भी
ख़ामोश हूँ मैं और वो कुछ पूछ रहे हैं
माथे पे शिकन भी है इनायत की नज़र भी
उस के लब-ए-रंगीं की नज़ाकत है न रंगत
ग़ुंचे भी बहुत देख लिए हैं गुल-ए-तर भी
आती है नज़र दूर ही से हुस्न की ख़ूबी
कुछ और ही होती है जवानी की नज़र भी
हटती है जो आईना से पड़ जाती है दिल पर
क्या शोख़ नज़र है कि उधर भी है इधर भी
बीमार-ए-मोहब्बत का खुदा है जो सँभल जाए
है शाम भी मख़दुश जुदाई की सहर भी
मै-ख़ान-ए-इशरत न सही कुंज-ए-गिरेबाँ
आँखों के छलकते हुए साग़र हैं इधर भी
मिल जाएँ अगर मुझ को तो मैं ख़िज्र से पूछूँ
देखी है कहीं शाम-ए-जुदाई की सहर भी
ऐ शौक़-ए-शहादत कहीं क़िस्मत न पलट जाए
बाँधी तो है तल्वार भी क़ातिल ने कमर भी
ऐ दिल तेरी आहें तो सुनीं कानों से हम ने
अब ये तू बता उस पे करेंगी ये असर भी
इक रश्क का पहलू तो है समझूँ कि न समझूँ
गर्दन भी है ख़म आप की नीची है नज़र भी
कुछ कान में कल आपने इरशाद किया था
मुश्ताक उसी बात का हूँ बार-ए-दिगर भी
सोफ़ार भी रंगीन किए हाथ भी उस ने
आया है बड़े काम मेरा ख़ून-ए-जिगर भी
छुपती है कोई बात छुपाए से सर-ए-बज़्म
उड़ते हो जो तुम हम से तो उड़ती है ख़बर भी
यूँ हिज्र में बरसों कभी लगती ही नहीं आँख
सो जाता हूं जब आ के वो कह देती हैं मगर भी
खुलता ही नहीं ‘बेख़ुद’-ए-बदनाम का कुछ हाल
कहते हैं फ़रिश्ता भी उसे लोग बषर भी