भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

वो धूप उजली सी, सुहानी शाम भी नहीं / श्रद्धा जैन

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

वो धूप उजली सी, सुहानी शाम भी नहीं
परदेश में घर जैसा तो, आराम भी नहीं

सपने हुए है पूरे, गर साथी मिरे कहो
क्यूँ नज़रों में दिखता, खुशी का नाम भी नहीं

तू अपने हक़ में बोलने की सोच तो ज़रा
गूंगा नहीं तू, बहरी ये आवाम भी नहीं

जब इश्क़ दौलत के तराज़ू पे बिक गया
आती वफ़ा डर के ही लब-ए-बाम भी नहीं

हर एक को कहती हो अपना दोस्त तुम जहाँ
इक दोस्त ही मिलना, वहाँ पे आम भी नहीं