वो धोती-पगड़ी वाला / कविता भट्ट
निरन्तर गतिशील जीवन,
अब लड़खड़ाने लगा।
सिर्फ़ दो निवालों के लिए,
संघर्ष मुँह की खाने लगा।
चमचमाते रजत अंश नहीं,
ये पसीने के रक्त बिन्दु हैं।
लुढ़क आये कपोलों पर
दुःख भरे ये सिन्धु हैं।
वातानुकूलन में मदभरे
प्यालों को पीने वाले।
मोल मेरे श्रम का क्या जानो,
तुम महलों में जीने वाले।
सभी को जीवन।-दान किया,
मौन, हल ही खींचा सदा।
अपनी ही रोटी ना मिली,
दरिद्र मैं, अभावों में जीवन कटा।
जीवित रहा एक झोंपड़ी में,
जो मौसमी घासों से थी बनी।
सिरलिपटा-आधेक मीटर पगड़ी में,
कृश देह दो मीटर धोती में।
दो रोटी, दो मीटर कपड़े में,
और दो-चार फुट के झोंपड़े में,
कल रहा था जो जीवित शव,
मृत भूमि पर लिपटा आज दो गज कपड़े में।
यह कपड़ा जिसे कफ़न कहते हैं,
महलस्वामी-दरिद्र सभी लिपटेंगे कल इसमें।
बहुत सोचा था सूखी भूमि पर चलूँगा,
फावड़ा लेकर कुछेक डग और भरूँगा।
जीवन पथ पर; किन्तु न भाव दिया मुझे,
अन्ततः थके हारे मौन अब पदचाप हुए।
दस रुपया जो बचा था,
बीज और खाद के बाद।
उससे विष भी जब ना मिला,
तो खरीदा कुछ ले उधार।
निःशब्द अब पड़ा हूँ हे प्रिये!
शिथिल हो तुम्हारी गोदी में।
चन्द पुरानी पीतल की चूड़ियाँ,
तोड़ दोगी तुम खिन्न होकर।
मैं तुम्हारा दोषी हूँ, किन्तु न धिक्कारना,
हूँ मैं व्यवस्था के लँगड़ेपन का प्रमाण।
त्याग रहा हूँ अब हारकर मैं,
व्यवस्था की चन्द कौड़ियों में सिमटा प्राण।
ऊँचे- ऊँचे उन कागज के महलों में,
निमग्न रहने वालों से एक बार तो पूछती है।
मेरी देह- स्थिर, निःशब्द और व्यथित,
कि वसीयत में अपने बेटे की, क्या लिखूँ मैं?
वही दो मीटर कपड़ा, विष की एक पुड़िया,
या आत्मघाती कर्ज का लम्बा-चौड़ा चिट्ठा।
झकझोर कर मैं पूछता हूँ मैं,
तुम निरुत्तर क्यों खड़े हो?
अपने अन्नदाता के शव को
रौंदते क्यों चल पड़े हो?
किन्तु हे प्रासादों के स्वामी!
तुम भी आखिर इस गर्व में,
कितना जिओगे, अन्नदाता मर गया तो,
तुम भी स्वयं ही मर जाओगे।
क्योंकि…
निरन्तर गतिशील जीवन,
अब लड़खड़ाने लगा।
मात्र दो निवालों के लिए,
संघर्ष मुँह की खाने लगा।