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वो नजरें / सुनील गज्जाणी

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जाने कौन सा फलसफा ढूंढती
मेरे चेहरे में वो नजरे
जाने कौन सी रूबाई पढ़ती
मेरे तन पे वो नजरे
जाने क्‍यूं मुझे रूमानी गजल समझते वो
शायद मेरे औरत होने के कारण
जाने कौन सा ....... नजरें।
नुक्‍ता और मिसरा दोनो मेरी आंखे शायद
लब बहर तय करते
जुल्‍फें अलफाजों को ढालती
चेहरा एक श्‍ोर बनता शायद
मेरे जज्‍बात उन नजरों से मीलों दूर
पलकें बेजान सी हो जाती मेरी
नजरे बींध देती जमीं को मेरी
वो मैली आंखे देख
जाने कौन सा ...... नजरें॥
मैं आकाश को छूने निकली थी
मगर घरौंदे तक ही सिमट गई
एक लक्ष्‍मण रेखा सी खिंच गई
ठिठक गए कदम वो मैली नजरे देख
किसे दोष दूं
किसे दोष दूं, मैं ..... औरत का होना
कैसे ना दोष दूं, औरत का ना होना
पल पल मरती मैं
कभी काया के भीतर
कभी काया लिए
मरती कभी तन से
कभी मन से
खिरते सपने
गिरते रिश्‍ते
जाने कौन सा अदब लिए
जाने कौन सा ..... वो नजरें॥