भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
वो निगाह-ए-चश्म-ए-तिलिस्म-गर मुझे देखते ही लजा गई / नियाज़ हैदर
Kavita Kosh से
वो निगाह-ए-चश्म-ए-तिलिस्म-गर मुझे देखते ही लजा गई
वो अदा जो सहर-ए-तमाम से भी सिवा करिश्मा दिखा गई
यही जाम परतव-ए-रूख़ तिरा यही तेरी जुल्फ़ को आईना
मह ओ अबरू मय की हसीं फ़ज़ा इसे रोकना ये फ़ज़ा गई
वो मिसाल-ए-बर्क़ नुमूद गुम-गश्तगी तबस्सुम-ए-बे-अमाँ
शफ़क़-आफ़रीं सी वो मौज लब दिल ओ जाँ में आग लगा गई
वो सियाह-रंग शमीम-शाम-ए-विसाल की जो नवेद है
इस अलम-गज़ीदा फ़िराक़ में वही जुल्फ़ याद फिर आ गई
शह-ए-दिलबराँ तुझे क्या ख़बर दिल-ए-रिंद-ए-ख़ाकनशीं है क्या
इसी ख़ाक ने उसे दिल किया यही ख़ाक उस को मिटा गई
वो सितम-शिआर सही मगर है वही क़रार-ए-दिल-ओ-नज़र
वो रहे तो रस्म-ए-वफ़ा रहे न रहे तो रस्म-ए-वफ़ा गई