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वो प्यार जिसके लिए हमने क्या गंवा न दिया / वसीम बरेलवी
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वो प्यार जिसके लिए हमने क्या गंवा न दिया
उसी ने बच के निकलने का रास्ता न दिया
कोई नज़र में रहा भी तो इस सलीके से
कि मैंने उसके ही घर का उसे पता न दिया
जब एक बार जला लीं हथेलियां अपनी
तो फिर ख़ुदा ने भी उस हाथ में दिया न दिया
यह गुमरही का भी नश्शा अजीब था वरना
गुनाहगार ने रस्ता, न फ़ासिला, न दिया
ज़बां से दिल के सभी फैसले नहीं होते
उसे भुलाने को कहते तो थे भुला न दिया
'वसीम' उसके ही घर उस पे ही तनक़ीद
यही बहुत है कि उसने तुम्हें उठा न दिया।