भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

वो प्यार ही क्या जो ढोया जाए? / महेश सन्तोषी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

हम क्यों किसी की-
उम्र सी लम्बी यादें ढोएँ?
आँखें पसीजे प्यासे ढोएँ?
वह प्यार ही क्या, जो ढोया जाय।

प्यार तो एक-एक साँस में
स्थित एक शाश्वत उत्सव है,
प्राणों में पिरोए इस फूल के आगे
अगला फूल पिरोया जाय।

बाँहों बँधा हो बदन या बाँहों के बाहर
बन्धनों की भी, एक सीमा है,
एक असीमितता भी,
सारी परिधियों में
कुछ ऐसा बाँध लिया
जैसे एक-एक बिन्दु भी, एक-एक रेखा भी,
तुम्हारे दृश्य-अदृश्य अस्पर्श,
अपनत्व के अनगिन आकाश,
मुझे अस्ताचल एक ऐसे समेटे रहे,
मैंने जीवित ही मोक्ष की ऊँचाइयाँ छू लीं?
फिर भी प्यार के समूचे धरातल
अबूझे, अछूते रहे!