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वो फूल तेरे होंठों के छूने से जो खिला / बशीर बद्र
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					वो फूल तेरे होंठों के छूने से जो खिला 
वो फूल और जुनू की आतिश भरी हवा 
नेज़ों ने मुझको जैसे ज़मीं से उठा लिया 
मैं तेरे नर्म सीने से जिस दम जुदा हुआ 
जैसे के सारे शहर की बिजली चली गई
आँखें खुली-खुली थीं मगर सूझता न था 
तस्वीर मेरी पर्द-ए-तख्लीक़ बन गई 
चिड़िया ने उसकी आड़ में इक घर बसा लिया 
बातें के जैसे पानी में जलते हुए दीये 
कमरे में नर्म-नर्म उजाला सा भर दिया 
सन्नाटे आये दर्जों में झाँका चले गए 
गर्मी की छुट्टियाँ थीं वहाँ कोई भी न था
	
	