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वो बकरा फिर अकेला पड़ गया है / शारिक़ कैफ़ी

वो बकरा फिर अकेला पड़ गया है
कि मेरा हाथ भी
डोंगे में अच्छी बोटियों को ढूंढता है

वो ही बकरा
खड़ा रक्खा गया है जिस को कोने में निगाहों से छुपाकर
वो जिसकी ज़िंदगी है मुनहसिर इस बात पर
कि हम खायेंगे कितना
और कितना छोड़ देंगे बस यूँही अपनी प्लेटों में

अभी कुछ देर पहले मैं खड़ा था पास जिसके
और जिसके जाविये से देख कर महफ़िल को
आँखें डबडबा आईं थी मेरी

मगर वो पल कभी का जा चुका है
कि अब हूँ मेज़ पर मैं
और मेरा हाथ भी डोंगे में अच्छी बोटियों को ढूंढता है
वो बकरा फिर अकेला पड़ गया है