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वो बज़ाहिर जो ज़माने से खफा लगता है / मोहसिन नक़वी

वो बज़ाहिर जो ज़माने से खफा लगता है
हँस के बोले भी तो दुनिया से जुदा लगता है

और कुछ देर न बुझने दे इसे रब-ए -सहर
डूबता चाँद मेरा दस्त-ए-दुआ लगता है

जिस से मुंह फेर के रस्ते की हवा गुजरी है
किसी उजड़े हुए आँगन का दिया लगता है

अब के सावन में भी ज़र्दी न गयी चेहरों की
ऐसे मौसम में तो जंगल भी हरा लगता है

शहर की भीड़ में खुलते हैं कहाँ उसके नकूश
आओ तन्हाई में सोचें कि वो क्या लगता है

मुंह छुपाये हुए गुजरा है जो अहबाब से आज
उसकी आँखों में कोई ज़ख्म नया लगता है

अब तो 'मोहसिन' के तसव्वुर में उतर रब-ए-जलील
इस उदासी में तो पत्थर भी खुदा लगता है