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वो बर्क़-ए-नाज़ गुरेज़ाँ नहीं तो कुछ भी नहीं / 'रविश' सिद्दीक़ी
Kavita Kosh से
वो बर्क़-ए-नाज़ गुरेज़ाँ नहीं तो कुछ भी नहीं
मगर शरीक-ए-रग-ए-जाँ नहीं तो कुछ भी नहीं
हज़ार दिल है तिरा मश्रिक़-ए-मह-ओ-ख़ुर्शीद
ग़ुबार-ए-मंज़िल-ए-जानाँ नहीं तो कुछ भी नहीं
बहार-ए-गुल-कदा-ए-नाज़ दिल-कुशा है मगर
नसीम-ए-शौक़ ख़िरामाँ नहीं तो कुछ भी नहीं
है ख़ल्वत-ए-दिल-ए-वीराँ ही मंज़िल-ए-महबूब
ये ख़ल्वत-ए-दिल-ए-वीराँ नहीं तो कुछ भी नहीं
हर एक साँस हो आतिश-कदा तो क्या हासिल
गुदाज़ शोला-ए-पिनहाँ नहीं तो कुछ भी नहीं
बग़ैर इश्क़ है रूदाद-ए-ज़िंदगी तारीक
ये लफ़्ज़ ज़ीनत-ए-उनवाँ नहीं तो कुछ भी नहीं
बहुत बुलंद है दिल का मक़ाम-ए-ख़ुद्दारी
मगर शिकस्त का इमकाँ नहीं तो कुछ भी नहीं
सुकून-ए-शौक़ हो या इजि़्तराब-ए-शौक़ ‘रविश’
अगर ब-मंज़िला-ए-जाँ नहीं तो कुछ भी नहीं