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वो बारहा ही उन्हीं रास्तों पे चलते हैं / नफ़ीस परवेज़

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वो बारहा ही उन्हीं रास्तों पर चलते हैं
अजीब लोग हैं गिर कर नहीं सँभलते हैं

मक़ाम अपना बदलती नहीं कोई मंज़िल
सफ़र में लोग कई रास्ते बदलते हैं

लगाते हम पर हैं इल्ज़ामे-बेवफ़ाई जो
वो क़त्ल करके भी बे-दाग़ बच निकलते हैं

चले हैं जो भी यहाँ अज़्मे-रौशनी ले कर
चराग़ उनकी उमीदों के रोज़ जलते हैं

वही है दिल वही दुनिया वही मसाइल हैं
सो हम इन्हीं से बिछड़ कर इन्हीं से मिलते हैं

क़दम उठे तो उसी सम्त रुख़ रहा उनका
मुहब्बतों के जहाँ रास्ते निकलते हैं