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वो बूँद-बूँद टपकती गुलों की बेचैनी / शैलेश ज़ैदी
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वो बूँद-बूँद टपकती गुलों की बेचैनी.
मुकम्मल एक ग़ज़ल थी गुलों की बेचैनी.
तमाम लोग थे दीवाने सिर्फ़ खुशबू के
किसी ने भी नहीं देखी गुलों की बेचैनी.
हमें तो अपने ही होने का कोई होश न था
हमारे सामने रखदी गुलों की बेचैनी.
बहोत उदास हूँ, कुछ ऐसा जाम दे साकी,
भरी हो जिसमें शराबी गुलों की बेचैनी.
गरेबाँ चाक किये बुलबुलों को देखा है ?
मचा रही है तबाही गुलों की बेचैनी.
मैं इंक़लाब की आवाज़ सुन रहा हूँ कहीं,
मेरी नज़र में है फिरती गुलों की बेचैनी.
परीशाँ करती है क्यों आके रोज़ ख़्वाबों में
हुई है प्यार में अंधी गुलों की बेचैनी.