वो मद भरी आँखों में, डाले हुये काजल है / अनु जसरोटिया
वो मद भरी आँखों में, डाले हुये काजल है
बस्ती में जिसे देखो, मदहोश है घायल है
ये कैसे उजाले हैं, तहज़ीब है ये कैसी
आवारा निगाहें हैं, उड़ता हुआ आँचल है
इक राह है नफ़रत की, इक राह मुहब्बत की
इक राह में काँटे हैं, इक राह में मखमल है
आता है यही जी में, पी जाऊँ तिरे आँसू
गँगा की तरह प्यारे ये जल भी तो निर्मल है
देती है पता हम को, तूफ़ान की आमद का
पानी की तहों में जो, ख़ामोश सी हलचल है
कहता है मुझे ले चल, तू कूचा-ए-क़ातिल में
ये दिल तो है सौदाई, नादान है, पागल है
दीवानों की सोचों में रहते हैं सदा सहरा
बस्ती को भी दीवाने, कहते हैं कि जंगल है
मालूम नहीं हम पर, क्या शब में गुज़र जाये
दिल शाम ही से अपना, बे-चैन है बेकल है
घुँघरू की सदा ज़ख्मी, पैरों में फफोले हैं
क्या रक्स करे कोई, टूटी हुई पायल है
जो दिल में उतर जाये, कहते हैं ग़ज़ल उस को
जो उँगलियाँ कटवाये, ढाके की वो मलमल है
बे-रूह है चण्डीगढ़, बिन आत्मा की नगरी
सीमेन्ट की बस्ती है, सरिये का ये जंगल है
कल रात गये, उठ कर, हम फूट के जो रोये
आँगन में 'अनु' दिल के, क्या ख़ूब ये जल थल है