वो मानबहादुर होता है / डी. एम. मिश्र
कितने ही पहरे बैठा लो सौ - सौ टुकड़े भी कर डालो
कोई भी जु़ल्म सितम ढालो जितना भी चाहो तड़पा लो
प्रतिकूल परिस्थितयों में जो सरपत -सा अक्षुण्ण होता हे
फिर - फिर जो उगता- बढ़ता है वो मानबहादुर होता है।
आँखेां में भरकर अंगारे जो मौत को अपनी ललकारे
मैं स्वाभिमान हूँ जन -जन का छू भी न सकेंगे हत्यारे
सिर खड्ग के नीचे रखकर भी आपा न कभी जो खेाता है
रिपुदल से तन्हा लड़ता है वो मानबहादुर होता है।
मरकर जो जिंदा रहता है यादों में चलता फिरता है
अवसान कहाँ उसका होता उर में जो नित्य धड़कता है
पीढियाँ उसी को याद करें जो कल के स्वप्न सँजोता है
स्मृतियों में जो बसता है वो मानबहादुर होता है।
नज़रें न कभी झुकतीं जिसकी, हिम्मत न कभी मरती जिसकी
तूफ़ानों, झंझावातों में कश्ती न कभी रुकती जिसकी
काँटों के बीहड़ बन से चुन शब्दों के सुमन पिरोता है
पतझर में भी जो खिलता है वो मानबहादुर होता है।
जो ज्ञान बाँटता चलता है गुरुपद का मान बढ़ाता है
जो अंधकार से लड़कर खुद जलकर प्रकाश बन जाता है
जो सत्य,न्याय, कर्मठता का ही बीज अनवरत बोता है
पथ से न कभी जो डिगता है वो मानबहादुर होता है।
कविता में जिसका जन्म हुआ, कविता में पलकर बड़ा हुआ
कविता से शक्ति ग्रहण करके पाँवों पर अपने खड़ा हुआ
कविता के गंगाजल से जो नित कलुष हृदय के धोता है
जग जिसको ‘जनकवि’ कहता है वो मानबहादुर होता है।
अफ़सोस मगर था ज्ञात किसे वह काला दिन भी आयेगा
साहित्य- जगत का वह सूरज दोपहरी में ढल जायेगा
पलक झपकते भर में देखा वहाँ ख़ू़न की नदी बही थी
और हज़ारों नामर्दों की भीड़ तमाशा देख रही थी।
मुरदों की ऐसी बस्ती में कायरता भी थर्राती थी
जो दृश्य वहाँ पर प्रस्तुत था लज्जा भी देख लजाती थी
कैसे कहकर बच पाओगे वह कौन शख़्स हत्यारा था
आकलन करो इसका भी तो कितना अपराध तुम्हारा था।
जो रही मूकदर्शक बनकर वह जनता भी तो क़ातिल थी
मानवता की उस हत्या में उसकी भी चुप्पी शामिल थी
जब याद करो वह बर्बरता रोंगटे खड़े हो जाते हैं
तन जाती हैं त्योरियाँ और भुजदण्ड कडे़ हो जाते हैं।
दिन हफ़्ते पखवारे बीते लेकिन क़ातिल घूम रहा था
कैसे वह पकड़ा जाता जब पुलिस का चौखट चूम रहा था
‘कमलनयन‘ की अगुआई में कवि, लेखक जब आगे आये
खुलीं प्रशासन की तब आँखें तब अपराधी पकड़ में आये।
छलक रही थीं आँखें सबकी सब असहाय बिलखते थे
अवरुद्ध सभी की वाणी थी सब खोये - खोये लगते थे
हर तरफ़ सिर्फ़ सन्नाटा था दहशत से सब घबराये थे
तब बडे़ - बडे़ साहित्यकार भी बरुआरी पुर आये थे।
उनकी कविता का पाठ हुआ, उनकी कविता पर शेाध हुआ
उनकी कविता के अध्ययन से निज दायित्वों का बोध हुआ
उसमें विचारधारा है तो बेहतर मनुष्य की भाषा है
यदि वर्तमान की चिंता है तो स्वप्न और अभिलाषा है।
मानबहादुर की कविता में जीवन की सच्चाई होती
अंबर -सा विस्तार दिखे तो सागर की गहराई होती
नहीं है कोई धटाटोप पर कण - कण की बातें हैं उसमें
त्रैलोक्य हो भले नहीं पर जन - जन की बातें है उसमें।
फूलों की ही बात नहीं है काँटों से भी प्यार वहाँ है
सुख का ही सम्मान नहीं है दुख का भी श्रृंगार वहाँ है
ज्ञान और विज्ञान वहाँ तो आडम्बर का धब्बा भी है
वहाँ ‘रामफल की कंठी’, ‘ठकुराइन का पनडब्बा’ भी है।
मानबहादुर की कविता में लोकचेतना का स्वर फूटे
वर्षों से जो चली आ रही रूढ़वादिता वो भी टूटे
गूँजे माँ की ममता उसमें,बिटिया पतोह की फिक्र्र भी है
जो वंचित, शोषित, पीड़ित है उस जनमानस का जिक्र भी है।
‘बीड़ी बुझने के करीब में’ गाँव विहँसता देखा है
मानबहादुर की कविता या गाँव की जीवन -रेखा है
छोटी -छोटी कविताओं में अनुभव का संसार बडा है
कहीं -कहीं नफ़रत भी होगी किन्तु मूल में प्यार भरा है।
पथ प्रशस्त करती जन - जन का वह कविता जो सच्ची होती
स्वयं शारदे - माँ आ जाती जहाँ भावना अच्छी होती
अंधकार से जो लड़ती है उस कविता का स्वागत होता
जो मशाल बनकर चलती है उस कविता का स्वागत होता।